मेरा स्वर्णिम बंगाल
संस्मरण
(अतीत और इतिहास की अंतर्यात्रा)
मल्लिका मुखर्जी
(1)
सादर समर्पित
परम पूज्य माता-पिता
श्रीमती रेखा भौमिक,
श्री क्षितिशचंद्र भौमिक,
नानी माँ आभारानी धर
तथा
उन सभी परिजनों को
जिन्होंने देश के विभाजन के परिणामस्वरूप
विस्थापन का दर्द सहन किया।
मल्लिका मुखर्जी
प्राक्कथन
देश विभाजन भारतीय उपमहाद्वीप की एक ऐसी त्रासदी है, जिसकी पीड़ा पीढ़ियों तक महसूस की जायेगी। इस विभाजन ने सिर्फ सरहदें ही नहीं खींचीं, बल्कि सामाजिक समरसता और साझा संस्कृति की विरासत को भी तहस-नहस कर दिया। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ा दी गई मनुष्यता को, मानव इतिहास कभी माफ नहीं कर पायेगा। वजह है, विभाजन से उपजा विस्थापन। संबंधों का विस्थापन, जड़ों से विस्थापन और संरक्षा-सुरक्षा के भरोसे का विस्थापन। इन कही-अनकही पीड़ाओं को इतिहास ने आंकड़ों में, तथ्यों में चाहे जितना दर्ज किया हो, लेकिन अपनों को सदा के लिए खो देने का गम, भीतर-ही-भीतर सूख चुके आँसुओं का गीलापन और यादों में दर्ज अपने वतन का नक्शा इतिहास में दर्ज नहीं होता। इस कमी को साहित्य पूरा करता है। हिन्दी साहित्य में भारत-पाक विभाजन पर काफी कुछ लिखा गया है। इस पुस्तक में भारत-पाक विभाजन से उपजी विस्थापन की पीड़ा और स्मृतियों के साथ-साथ भारत-पाक युध्द के परिणाम स्वरूप पाकिस्तान के विभाजन और विस्थापन की पीड़ा और स्मृतियाँ भी केंद्रित हैं। आशय यह कि पाकिस्तान से अलग होकर बने बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) और उससे पैदा हुई विस्थापन की त्रासदी का हिन्दी में कोई यादगार उल्लेख नहीं मिलता। यह अकारण तो नहीं हुआ होगा? क्या यह सांस्कृतिक दूरी थी? हिन्दी भाषी लेखन से दूरी थी या पश्चिम और पूरब के प्रति हमारा विभेदपरक नजरिया? जो भी हो, हिन्दी में यह अभाव सालता तो है। ऐसे में संवेदनशील लेखिका मल्लिका मुखर्जी की बांग्लादेश से जुड़ी यह पुस्तक ‘मेरे स्वर्णिम बंगाल’ इस दिशा में देर आए दुरुस्त आए ही सही, एक सार्थक और बहुप्रतीक्षित पहल है।
यह पुस्तक यात्रा-वृतांत नहीं है, बल्कि उस अतीत और इतिहास की अंतर्यात्रा है, जिसे विभाजन के बाद एक पीढ़ी ने भुगता और उसकी संततियों ने अपनी रगों में महसूस किया। अपनी मिट्टी से मोह ,जड़ों से जुड़ाव और उससे सदा के लिए जुदा हो जाने का दर्द क्या होता है, यह कोई विस्थापित शरणार्थी ही समझ सकता है। मल्लिका जी ने विस्थापन की इस पीड़ा को अपने पिता, अपनी नानी और प्रकारांतर से कई परिजनों की स्मृतियों में अनवरत महसूस किया है। उनकी कही-अनकही बेचैनियों को करीब से जाना है। जाहिरन, इनसे होकर गुजरना, उसी पीड़ा और बेचैनियों में उतरना है। मल्लिका जी ने अपनी इस पुस्तक में आज के बांग्लादेश और कल के पूर्वी पाकिस्तान की एक साथ यात्रा की है। यह दोहरी पीड़ा की यात्रा है। यह एक भू-क्षेत्र के सौभाग्य-दुर्भाग्य की आंखमिचौली को जानने-समझने की कोशिश है। यह यात्रा जितनी निजी है, उतनी ही सार्वजनीन। दरअसल, यह एक आम आदमी की निजी यात्रा है, जिसमें अपने पुरखों की छूटी जन्मभूमि को देखने की भावुकता है। यह किसी संस्था, राज्य प्रायोजित यात्रा नहीं है। इस यात्रा में कोई गाइड नहीं है, कोई सुनियोजित कार्यक्रम नहीं है। यह एक ऐसी यात्रा है, जिसकी प्रेरणा पिता की स्मृतियाँ हैं और संबल उस देश में रह गये कुछ अपने-बेगानों के होने-मिलने की आस। इन्हीं संयोगों और सुयोगों का योग है यह पुस्तक। मल्लिका जी ने इस पुस्तक में पुरखों के घर-गाँव की तलाश करते हुए उस इतिहास की भी तलाश की है, जो किसी इतिहास की किताब में दर्ज नहीं। यह रिश्तों की पड़ताल है।
01 सितम्बर, 2019
अवधेश प्रीत
पटना